सफ़ेद बर्फ की चादर ओढ़े, हिमालय गर्व के साथ भूमि से आसमान की ओर उठ रहा था, मानो धरती से उठ, भयंकर बादलों का छेदन कर आकाश को छूना चाहता हो। पठार पर हरियाली, तथा ऊपर प्रचुर मात्र में आकाश, एवं नीचे नीले जल की झीलों की श्रृंखला, हिमालय को रोम के किसी अद्भुत चित्र की तरह दर्शाता है, जहाँ चित्रकार नीले, हरे, तथा श्वेत रंग को छोड़ बाकी सब रंग भूल गया हो। आप केवल आश्चर्यचकित हो विचार कर सकते हैं की कैसे रचयिता इन विशाल पर्वतों को अपनी सृष्टि में स्थान देते हैं, संभवतः यही कारण है की हिमालय को स्वर्ग की सीढ़ी कहा जाता था।
एक आकस्मिक लालित्य के साथ सूर्य हर संभव दिशा में अपना प्रकाश बिखेरते हुए उदय हो रहा था, अपनी किरणों को मोटी बर्फ की चादर पर प्रपात, प्रसन्नता के प्रतिबिम्ब दिखता है।
वृक्षों के बीच से सरसराती ठंडी हवा, पत्थरों पर पड़ती पानी की बौछारें, यह दृश्य सुदूर से मनमोहक लग सकता है किन्तु, निवास के लिए यह उपयुक्त नहीं है, यह इतना शीत है की गरम कपड़ों को भी स्वयं की सुरक्षा के लिए आश्रय ढूंढना पढ़ता है। हवा, जैसे त्वचा को काट रही हो, प्रत्येक श्वास , नियमित मनुष्य के लिए एक कठिन प्रयास हो, प्रकश एवं तापमान सामान्य जीवित प्राणियों के लिए असहनीय हैं।
अपरिचित भू दृश्य पर, भ्रामक नीरसता से ऊबते, पांच विशाल पुरुष, अपनी शान्त आँखों से पर्वतों की ओर देख रहे थे, उनके चेहरे काली दाढ़ी के कारण अस्पष्ट थे, एवं उनकी आँखें उत्साह-विहीन थीं।
पर्वतों की चोटी थोडा सा झुक कर इन्हें देखती है, झीलें उमड़ कर पहचानने की कोशिश करती हैं, आलौकिक शांति में विघ्न डालने के लिए हवा उन्हें अपने दांतों से काटती हैं। उन्हें अनुमान नहीं था की इन पुरुषों के प्रमुख को कभी धर्म एवं शांति का प्रतीक माना जाता था।
वे पाँच पुरुष एक समय योद्धा थे, जिन्होंने अपने शौर्य से अपने विरोधियों में भय उत्पन्न कर दिया था, तथा अपने अतीत में सबसे भीषण युद्ध में जीवित रहे थे।
और उनके पीछे एक सुंदर महिला धीमी गति से चल रही थी वह चल रही थी या अपने पैरों को खींच रही थी? वह एक ऐसी महिला की तरह दिखती थी जो कभी आकर्षण,शक्ति, धैर्य, सहनशीलता, क्षमा, दया, करुणा एवं कृपा से परिपूर्ण रही हो पर अब शारीरिक एवं मानसिक रूप से थकने के कारण सब त्याग चुकी हो।
उस सत्री के सामने आते ही, प्रकृति में एक व्यापक परिवर्तन हुआ, जो प्रकृति स्वयं में असीम ज्ञान को समेटे, समस्त जीवों का आलिंगन करती है, तथा अपने आस-पास घटने वाली प्रत्येक घटना की दृष्टा है, उस दिन अपनी प्रतिरूप सत्री के सामने प्रशंशा में झुक गयी। हिमालय भी उसकी उपस्तिथि से विस्मित एवं आकर्षित था।
प्रकृति में होते परिवर्तन को देख, उसके आगे चलते प्रत्येक पुरुष के मुख पर एक मुस्कान थी, यह उनके लिए आश्चर्यपूर्ण नहीं था, क्यूंकि वे अपने अतीत में इस प्रकार के अनुभवों के अभ्यस्त थे।
वह उन पांच भाइयों की पत्नी थी।
युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव। पाँचों भाइयों का विवाह, एक ही महिला "द्रौपदी" से हुआ था । वे सुख -दुख, कष्ट-आनंद, सौभाग्य-दुर्भाग्य में सदैव एक साथ रहे। तथा अब, वे सभी स्वर्गलोक की अपनी खोज पर थे।
पांच पति
पाँच योद्धा, बुद्धिजीवी, नायक।
प्रत्येक यात्रा का समापन कहीं न कहीं होना होता है, तथा उनके साथ उसकी वैवाहिक यात्रा भी उसी दिन समाप्त होने वाली थी।
किन्तु वह अपने आस-पास घटित हो रही अप्रत्याशित घटनाओं पर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया की अवस्था में नहीं थी, वह केवल शारीरिक रूप से जीवित थी।
अपने सम्पूर्ण जीवन में, उसने जहाँ भी चरण रखे उसे इसी प्रकार की अप्रत्याशित घटनाओं एवं संघर्षों का सामना करना पड़ा। कुछ ही पुरुषों के लिए वह दिव्य शुद्धता एवं भक्ति का प्रतिबिम्ब थी अन्यथा अधिकांश केवल उसकी यौन इच्छा को देखते थे। कुछ उसे श्रद्धा भाव से देखते तथा कुछ घृणा से।
एक जीवित प्राणी के लिए संभव प्रत्येक भौतिक सुखों एवं पीड़ा का वह अनुभव कर चुकी थी, उसके अनुभव में शेष केवल मृत्यु थी।
जिस क्षण उसने स्वीकार किया कि वह स्वर्गलोक की सीढ़ियों तक नहीं पहुंच सकती है, उसने आनंदित मुस्कान से पर्वत शिखा की ओर देखा, उसे लगा कि भगवान शिव अपने आशीर्वाद से उसे अभिभूत कर रहे हैं। जो जीवन भगवान शिव के वरदान से उत्पन्न हुआ था, वह अंततः कुछ ही पलों में उनके प्रवेश द्वार पर समाप्त हो जाएगा।
हिमपात में नंगे पैर चलते चलते एवं प्रतिकूल वायुमंडल के कारण उसकी सांसें उखड़ने लगीं, वह झटके से अपने घुटनों पर गिर गयी। सभी पांच भाई समझ सकते थे की फिसल गयी है किन्तु भीम के सिवा किसी ने भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
वह जानती थी कि वे सभी उससे प्रेम करते हैं,किन्तु वे उसके लिए रुकेंगे नहीं, उसे कोई आश्चर्य नहीं था। वह सदैव ही युधिष्ठिर को धर्म के प्रतीक के रूप में जानती थी तथा उसके सभी भाई उसका अनुसरण करते थे।
भीम दौड़ता हुआ उसकी ओर आया और रोने लगा, "द्रौपदी द्रौपदी, तुम ठीक हो?"
वह एक शब्द भी नहीं बोल सकती थी।
भीम ने दौड़ते हुए युधिष्ठिर को पार किया एवं एक पल के लिए अपने घुटनों के बल बैठ कर याचना की। वातावरण इतना प्रतिकूल था की दौड़ते-दौड़ते भीम जैसे शक्ति शाली व्यक्ति की भी साँसे फूल गयी थी।
उसने अपने अश्रू पोंछते हुए कहा, भ्राताश्री, उसकी मृत्यु हो रही है और आप पीछे देखना भी उचित नहीं समझते, यह अनुचित है, कृप्या कुछ करें। यद्यपि भीम शारीरिक रूप से सबसे कठिन एवं सबसे शक्तिशाली था, किन्तु उसका ह्रदय एक बालक जैसा था।
“भीम, यहाँ हमारा अस्तित्व कुछ समय के लिए ही है। हमारे प्रियजनों के प्रति हमारा लगाव और स्नेह अस्थायी है। हमारे शत्रुओं के प्रति हमारी शत्रुता एवं घृणा अस्थायी है। केवल धर्म सदैव रहता है। धर्म का कोई अंत नहीं है, जीवन का अंतिम लक्ष्य मृत्यु है। एक दिन सब समाप्त होता है, आज उसकी मृत्यु का दिन है, कल सम्भवतः मेरा होगा, अंततः हम सब मृत्यु को प्राप्त होंगे एवं अपने कर्मानुसार स्वर्ग अथवा नरक का भोग करेंगे, इसलिए जो अपरिहार्य है उसके लिए दुःख करना निर्थक है।“
“प्रिय भ्राता, आप धर्म एवं न्याय के प्रतीक हैं, मैं आपके प्रत्येक कथन से सहमत हूँ, किन्तु हम उसे इस अवस्था में कैसे छोड़ सकते हैं? वह हमारी पत्नी है, जिससे हमने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा अंतरिक्ष को साक्षी मान कर विवाह किया है। सवर्प्रथम उसकी मृत्यु ही क्यूँ? उसका कौन सा पाप उसे इस दयनीय स्तिथि में ले आया?”
युधिष्ठिर ने दृढ़ता से उत्तर दिया, "सर्वप्रथम उसकी मृत्यु इसलिए क्यूंकि वह इसी के योग्य है।"
"योग्य है? आप ऐसा कैसे कह सकते हैं ?" भीम ने ऊँचे स्वर में प्रश्न किया।
युधिष्ठिर ने स्पष्ट उत्तर दिया,“ क्यूंकि वह हम सब में सबसे अधिक प्रेम अर्जुन को करती थी, यद्यपि हम सभी उसके पति थे, यह एक पाप है।“ अर्जुन ने यह सुना किन्तु उत्तर देना उचित नहीं समझा।
वह अस्पष्ट रूप से उनकी बातचीत सुन सकती थी किन्तु प्रतिक्रिया देने की स्थिति में नहीं थी। वास्तव में, उसे प्रतिक्रिया देने की आवश्यकता भी महसूस नहीं हुई।
मिथ्यारोप, अपमान, अन्याय, परिहास, कष्ट, घृणा वह अपने जीवन काल में इन सभी की परिकाष्ठा देख चुकी थी।
उसने मन में विचार किया, " पति युधिष्ठिर, हमारे विवाह में विद्वानों द्वारा उच्चारित प्रत्येक मंत्र को एवं पति-पत्नी के बंधन को भलीभांति समझते हैं, किन्तु यदि आप केवल एक स्त्री के हृदय को समझने के लिए उस विवेक का उपयोग करते तो मुझ पर यह मिथ्यारोप नहीं लगाते।“ उस क्षण उसके ह्रदय के एक भाग की मृत्यु हो गयी।
उसे आभास हुआ की, युधिष्ठिर के मिथ्यारोप के कारण ही उसका कोई पति उसकी अवस्था को लेकर चिंतित नहीं था।
भीम को भलीभांति ज्ञात था की वह युधिष्ठिर के मन को नहीं बदल सकता था, वह असहाय अवस्था में द्रौपदी की और बढ़ा, तथा अन्य भाई युधिष्ठिर के साथ आगे बढ़ गए। शीतलहर द्वारा चेहरे के बालों के हटने पर वह उसकी अश्रूपूर्ण आँखें देख सकता था।
उसे आभास हुआ की एक अदृश्य शक्ति उसकी सारी इंद्रियों को धीरे-धीरे अवरुद्ध कर रही थी, जिससे उसके शरीर की ऊर्जा नष्ट हो रही थी, जादुई सफ़ेद परत उसकी दृष्टि को अवरुद्ध कर रही थी, उसे कुछ अनुभव नहीं हो रहा था।
उसने स्वयं में विचारा," क्या यह मृत्यु है?" उसके जीवन की प्रत्येक घटनाएं उसकी आँखों के सामने आ गयीं, उसके शरीर के नीचे बर्फ के टूटने के साथ उसके दिल के टूटने और भगवान कृष्ण की निकटता के लिए उसकी सभी आंतरिक आवाज़ों के साथ, उसने अपनी आँखें बंद कर लीं।
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